कुछ चुनी हुई कवितायेँ और ग़ज़लें प्रस्तुत है:
पतझड़
कुछ झड़ चुके कुछ झड़ रहे
मिट्टी में जिस्म रगड़ रहे
सौंदर्य बिखराते हुए
देखो ये घर उजड़ रहे
सींचे ज़मीं को खून से
ना सर रहे ना धड़ रहे
कि पेड़ की धरा पर यूँ
सर्दी में भी पकड़ रहे
मिट जाएँ पात-पात पर
अखंड इसकी जड़ रहे
कितने जीवन
एक ज़िंदगानी और कितने जीवन
समायें कैसे इसमें इतने जीवन
जब कहलाने को कुछ पास न था
कोशिश करते रहें कि बने जीवन
कुछ हाथ लगते ही बढ़ी उम्मीदें
चाहा क्यों ना हम भी जने जीवन
कुछ बेकल रूह सिमटे बीज में
कुछ बेकराँ समंदर जितने जीवन
एक किरण ने रोशनी क्या दिखाई
इस उम्र में लगे सींचने जीवन
मेरे शहर में
अपराधियों का एक मुहल्ला हुआ करता था
हम बच्चों के वहाँ जाने पर रोक थी
फिर जीवन का मोंताज चला
पृष्ठभूमि में फ़िल्मी गीत बजते रहें
और हम बड़े हो गए
मेरे शहर में
अब आए दिन अपराधियों से मुलाक़ात हुआ करती है
पार्टियों में
दफ़्तर में
त्योहारों में
बाज़ारों में
अब उनका कोई मुहल्ला नहीं रहा
सर्वव्यापी हो गए है वे
मनबसिया
आँख मूँदते ही
पलकों पर बैठ जाते हो
फिर उठने का नाम नहीं लेते।
दिन निकलता है तो
किसी तरह आँखें खोलता हूँ
तुम्हें हटाकर पलकों से।
जब आसपास का कोलाहल थम जाता है
कान बस तुम्हें सुनते हैं।
वो भारीपन, वो कम्पन, वो मधुरता
गूंजती रहती है
सारे शोर को ब्लॉक कर।
भूख-प्यास लगती है तो
कान फिर शोरगुल की ओर मुड़ते हैं
तुम्हारी गूंज को अनसुना कर।
क्लांत मन जब और सोच नहीं पाता
तुम अहसास बन के आते हो
मन पर घेरा डाले।
ऐसा क्यों नहीं होता
कि सोच फिर कभी ना लौटे?
बस अहसास रह जायें
और उनमें बसे तुम
चिरकाल के लिए।
सारे थिरकन, सब हलचल तुम रख लो
वक़्त मुझे दे दो, ये पल तुम रख लो
मैं ख़ुश हूँ ठहराव के सन्नाटे में
आज़ादी की उथल पुथल तुम रख लो
कोई एक तो रुककर ज़रा भिगो दे मुझे
बाक़ी जितने उड़ते बादल तुम रख लो
बना दो प्यार से क़ब्र मेरा सर आँखों पर
रियासत जो करो दखल तुम रख लो
मैं ठहरा चिंगारी का प्यासा अभिजित
चकाचौंध करता दावानल तुम रख लो
टूटे हुए दिल को ज़रा सहेज कर रखो
गोंद से चिपका कर उसे मेज़ पर रखो
कामयाबी के दौर को बस गुज़र जाने दो
नाकामियों को अपनी दस्तावेज कर रखो
जाने कब हथियार की पड़ जाए ज़रूरत
संधि के दौर में भी धार तेज़ कर रखो
इश्क़ के नुमाइंदे को अपना लो अभिजित
नफ़रत के प्रचारकों से परहेज़ कर रखो
ज़िंदगी
ना सिर्फ़ परिवेश को देख-भाल रही ज़िंदगी
हर तत्व, हर शक्ति को सम्भाल रही ज़िंदगी
बादलों के कारागृह में पानियों को क़ैद कर
कुछ बूँदों को गिरफ़्त से निकाल रही ज़िंदगी
टपकती बूँदों को झेल, एक साथ जोड़कर
हठी शिलाओं को चूर खंगाल रही ज़िंदगी
यूँ गूँथकर मिट्टी बना उसमें लगाकर पाइपलाइन
पौधा-रूपी इमारत की नींव ढाल रही ज़िंदगी
जो स्थिर उसे ऊँचा करे, अस्थिर को दौड़ाए
इस तरह नित नई ज़िंदगी को पाल रही ज़िंदगी
हैरत में पड़ गया अभिजित इसके मनसूबे देख
हवा के इर्द गिर्द भी डेरा डाल रही ज़िंदगी
आख़िर पंखुड़ियों के दाँत
छुपाते कब तलक जज़्बात
छलक उठा है यौवन भी
हुई है इस कदर बरसात
वक़्त पौधों का है शायद
कि आपद में है प्राणिजात
गुलज़ार
सब रंग समेटकर वह सादा बना
सृजन करना था तभी मादा बना
ख़्वाब बुनकर कुछ ना हासिल हुआ
प्यार क़ुर्बान किया तब इरादा बना
वज़ीर-ए-आ?ला महज़ ओहदा है
मुझे बस काम दे और प्यादा बना
तेरे अंजाम में है देर अभिजित
तेरा ढाँचा है अब तक आधा बना
फूलों का क्या
खिल उठते हैं जब ऊर्जा मिलती है
पूछो पत्तों से
इलेक्ट्रॉन की उछलकूद कैसे बदन छीलती है
उसूलों का क्या
अड़े रहते हैं जब तक जीविका होती है
पूछो ज़िंदगी से
कल की कमाई के लिए वह क्यों रोती है
मेरी सूत्रकणिकाएँ
मुझे बड़ी जल्दी है
बहुत कुछ करना है यहीं, अभी
तुम्हारी ख़ुशनसीबी है
सदियों तक चलेंगे तुम्हारे काम सभी
ये मेरी सूत्रकणिकाएँ
जो हैं मुझ तक सीमित
अपने अंजाम से परिचित
हर पल मुझे फुसलाएँ
करने दो मुझे
अभी, यहीं
झरने दो मुझे
रोको नहीं
हल्कापन
कुछ हल्का महसूस कर रहा हूँ
देह से कुछ परतों को झटक कर
पानी जान स्वीकार किया था जिन्हें
कि मिले स्पन्दन
कुछ हंसी-क्रंदन
बर्फ़ बनकर मगर वे जम गए थे
सुखा रहे थे मन
ऊपर से कम्पन
कुछ को सटका और ज़रा सटक कर
कुछ हल्का महसूस कर रहा हूँ
चंद्र माँ
तुम चाँद सी सरकती जाती हो
हौले हौले कि मुझे दूरी महसूस ना हो
मैं पृथ्वी सा अपनी धुन में
बल खाता, घूमता रहता हूँ
तुम चाँद सी सिकुड़ती जाती हो
आगामी पर सब न्योछावर कर
मैं पृथ्वी सा अपनी धुन में
ऊर्जा पाकर फूला नहीं समाता
तुम चाँद सी तकती रहती हो
हर पल मुझे आँखों में रखती हो
मैं पृथ्वी सा अपनी धुन में
सारा ब्रम्हाण्ड देखा करता हूँ
बल खाता, घूमता, फूलता, देखता
तारों में उलझा था इतने दिन
अब तुम पर नज़र आ टिकी है
अब समझ पा रहा हूँ तुम्हें
पर तुम इतनी दूर हो अब
चाँद जितना दूर है!
मैं भी चाँद बनकर एक पृथ्वी रचूँगा
और तुम्हारी तरह
उसे फलते देख
विलीन हो जाऊँगा शून्य में
इस तरह तुम्हारा ऋण मैं चुकाऊँगा
माँ
आत्मघाती खेल
अनवरत तालियों की गड़गड़ाहट है
हमारा वर्तमान जीत रहा है
भविष्य की धज्जियाँ उड़ाकर
मनोरंजन से भरपूर यह चित्रपट है
अच्छा समय बीत रहा है
खेल में सब कुछ लुटाकर
बंद दरवाज़े पर कैसी आहट है?
फिर क्यों झाँक अतीत रहा है
जर्जर हाथों से पर्दा उठाकर?
रूबरू आते नहीं, फिर भी वितर्क हो जाता है
ज़ुबान खुलती भी नहीं, बेड़ा गर्क हो जाता है
क़ुदरत है नज़ारे में, झरोखा भी है क़ुदरत का
नज़रों से, नज़रिए से बड़ा फ़र्क़ हो जाता है
क़त्ल की अदा पर उन्हें सात ख़ून माफ़ है
मेरे चूँ करते ही जहान सतर्क हो जाता है
मुआफ़ी की ठंडक अहम के ताप से अच्छी
भ्रम पालने से राख पाक सम्पर्क हो जाता है
मैं नहीं तो क्या
ज़िंदगी से है तस्वीर आबाद, मैं नहीं तो क्या
कण-कण में है निखरे उन्माद, मैं नहीं तो क्या
जो हर कहीं है – पौधे, पानी, माटी, बादल में
कोई तो करेगा उसकी ईजाद, मैं नहीं तो क्या
साँस के छंद प्रकृति से स्याही ले रचता रहूँगा
किसी सृष्टि को मिलेगी दाद, मैं नहीं तो क्या
आया कहाँ से, किसलिए, जाना कहाँ आख़िर
होते रहेंगे यूँ वाद-विवाद, मैं नहीं तो क्या
पेड़ कहता है…
इमारत हम भी बनाते हैं गगनचुंबी
और निर्माण में रहते हो मगन तुम भी
फ़र्क़ है मगर ज़मीन आसमान का
शौक़ हमको नहीं ऊँचे मकान का
हर पत्ते को रश्मि मिले इस वजह से
ऊपर की ओर बढ़ते हम एक जगह से
तुम स्तर बनाते हो अपने ही लोगों का
हड़प लेते हो सुख चैन पाते ही मौक़ा
हम पसारते हैं अपनी डालियाँ ऊपर
तुम सिकुड़ जाते हो ऊँचाई को पाकर
साँस-ओ-दाना-पानी पाते हो हमी से
फिर उखाड़ फेंकते हो हमें ही जमीं से
दौर का दौरा
जी करतब दिखाता है
क्या ग़ज़ब दिखाता है
देने को कुछ नहीं अब
वो अदब सिखाता है
आँख-कान बंद रखो
तो वो सब दिखाता है
इस दौर में बैर करना
भी मज़हब सिखाता है
अभिजित से ये वक़्त
क्यों बेढब लिखाता है?
बसंतकाल
बढ़िया हालचाल है
यहाँ बसंतकाल है
उम्र हरा कर देगा
इस वक़्त तो लाल है
गरमी को देख लेंगे
मस्त फ़िलहाल है
ऐसे में रूठे रहे
किसकी मजाल है
शहर मेरा
लैम्पपोस्ट दिखाए सूरज को शहर मेरा
नित पेचीदा बनाए सहज को शहर मेरा
एक एक जोड़कर पैदावार करे गाँव सारे
पाते ही निगल जाए उपज को शहर मेरा
अमन चैन के बादल अब बरसते कहाँ है
गले लगाए भीड़ की गरज को शहर मेरा
चिरसुशांत
जो हुनर उनको विरासत में मिलें
इस आभागे को हिरासत में मिलें
आज़ादी इस दौर की कुछ न पूछ
क़ैद मंसूबे सियासत में मिलें
निगाह तक डूबे आहट के लिए
जाते ही दोस्त हिदायत में मिलें
चार:गर बूझ ना सके मर्ज़-ए-ज़िंदगी
और निगाहबाँ भी क़यामत में मिलें
क़ुदरत
कई रेखाएँ आपस में जुड़े तब वक्र होता है
ऐसा क्या किया तूने जो इतना फ़क़्र होता है
क़ुदरत को कहाँ समझा है अभी तक अरे इंसां
क्या जाने तेरे ही कक्ष में क्या चक्र होता है
बादल
ढोकर लायें बीज धरती पर उतारे चले गए
वादी की गोद में कुछ पल गुज़ारे चले गए
पर्दों में उलझा लिया मुझे फिर रोज़मर्रा ने
नज़र उठी, न जाने कब वो नज़ारे चले गए
जी रहा हूँ
बतौर तालीम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
हो चाहे ज़ालिम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
वर्क-लाइफ़ बैलेन्स का सवाल है कहाँ
एक फ़ुल टाइम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
दूर रहता हूँ तमाम गुट-ओ-खेमों से
राम-ओ-रहीम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
बियाबान होता है तब भी छोड़ता नहीं
कि अब रिमझिम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
किसीका पाप ढो रहा हूँ मुस्कुराता हुआ
किसीकी मुजरिम ज़िंदगी जी रहा हूँ मैं
पहल
भँवरे को आख़िर पता क्या है
कि फूल उससे चाहता क्या है
बोलती आँखें हैं, पथरीले होंठ
बात दिल में तेरे बता क्या है
खोद कर एक आशियाँ बना ले
मिट्टी को फ़क़त सूंघता क्या है
ढिंढोरा पीटती नफ़रत है यहाँ
जता ले प्यार तू, ख़ता क्या है
मेरा मैं
सभ्यता की कालिमा से छानता सवेरा मैं
एक से नक़ाबों में ख़ुद को ढूँढता मेरा मैं
आशियाँ अपना
टुकड़ा ज़मीन का जहाँ
चार दिल बसते हैं
धूप-छांव की लहरों में
रोते कभी हँसते हैं
पौधों की मंज़िल है
जंतुओं के रस्ते हैं
दरवाज़े-खिड़कियाँ करे
मौसम को नमस्ते हैं
कुछ आहटें ऐसी भी
जिनको नैन तरसते हैं
रोबोट
है इतना द्वंद्व
कि बोलती बंद
बस लेखनी ही
चले स्वच्छंद
है इतनी भीड़
सूना हर नीड़
फूल-पत्ते सारे
नहीं कोई पीड़
हैं इतने उपकरण
ठप्प है सृजन
मग़्ज ही सब कुछ
ना दृष्टि ना श्रवण
कितने एक से हैं लोग
है सबकी एक ही नाली
भीतर एक सी प्रणाली
वही मुँह, वही पाचन क्रिया
देह ठेलता वही दोपहिया
मुट्ठी बंद कर ये अँगूठा छाप
समेट लेते हैं सूरज का ताप
जमा की हुई पूँजी बाँटते
फिर विवेक से हैं लोग
कितने एक से हैं लोग
निकले थे अफ़्रीका से
सारे अन्वेषण के प्यासे
नए मक़ाम को पाकर
कुदाली बेलचा उठाकर
बांधे मकान ज़मीन पर
क़ुदरत पर यक़ीन कर
उतनी ही बोली सबकी भिन्न
जितने एक से हैं लोग
कितने एक से हैं लोग
मैं दुनिया जितनी देखता
करती हैरान एकता
फिर कोई भेद गिनाता
ऐनक के पीछे से गाता
“देखो अनेक से हैं लोग”
क्या करूँ आसमां को भूल
कृत्रिम खेमों मे मशगूल
कुछ fake से हैं लोग
फिर भी एक से हैं लोग
साया
मेरे संग आता भी है तो तू अपनी मर्ज़ी से
कभी गुमान को ढोकर या फिर ख़ुदगर्ज़ी से
कभी क़ानून का हाथ बने, कभी बौने मियाँ
सिलाया तुझे न जाने किस नामुराद दर्ज़ी से
मेरे जहान-ए-बेबसी से नफ़रत सही तुझे
मुझे तो मिल आने दे कपूर से, मुखर्जी से
ऐसी ही बातें होती हैं
बातें सारी जमी हुई हैं
कुछ हमारी कुछ तुम्हारी हैं
दिल फिर भी उंडेलता जाता है
अजीब ये बीमारी है
अब भी बातचीत ठप्प है
संचार मगर जारी है
बस दिल बोलते रहते हैं
शायद यही सच्ची यारी है
औसत
रोज़ हरसू यहाँ कई बुलबुले निकलते हैं
फूलते ख़ूब हैं लेकिन कहाँ वो फलते हैं?
एक रवा है जो ख़ामोश बढ़े धीरे धीरे
और पलछिन के ये मेहमां बड़े मचलते हैं
फट पड़ेंगे पलक झपकते एक ठोकर पे
आज साबुत है तो ये बेशुमार उछलते हैं
प्रचार
सुर्ख़ियों के जहां में हम क्यों व्यर्थ चिल्लाएँ
अपनी दुनिया में शब्द चीख़ें, अर्थ चिल्लाएँ
सन्नाटा लिए फिरे है मुहल्ले का जानकार
कुछ भी समझ पाने में असमर्थ चिल्लाएँ
अपनी जगह रहोगे क़ायम तो सुनोगे कैसे
कि पाँव तले दबे हुए सब पर्त चिल्लाएँ
खुद
बादलों के बीच हम महफ़िल लगा बैठे
इस बार अपने आप से यूँ दिल लगा बैठे
अपने साये से उम्मीद भी कतराने जब लगी
हर मील के पत्थर पर हम मंज़िल लगा बैठे
हर तंत्र के बन बैठे शहंशाह अभिजित
दीवारों पर अब गांधी-ओ-चर्चिल लगा बैठे
लाचार सम्बंध
तुम अपनी ज़िद पर अड़े रहना
चाहे जितना दर्द पड़े सहना
मेरा रास्ता कभी तो जाएगा वहाँ
तुम उसी मोड़ पर खड़े रहना
इस लाचार सम्बंध की लाज रखने
निशानी की मोती जड़े रहना
बेचैनी
नज़रें हटा
देखी छटा
क्या ख़ूब घटा
क्या ख़ूब घटा
फिर ध्यान बँटा
ख़ुद से कटा
मन अटपटा
क़ैद ज़िंदगी
संस्थानों में क़ैद ज़िंदगी
फिर भी है मुस्तैद ज़िंदगी
ख़ुद को करती है बयाँ
दीवारों पर अवैध ज़िंदगी
कालिख मिटाते दुनिया की
धुँधला गयी सफ़ेद ज़िंदगी
हासिल
मिलने लगे हो तुम ख़यालों में
दूर हो गयी है सारी दूरियाँ
छूना चाहे तुमको जब नज़र मेरी
दिल कहे जो भी मिला है शुक्रिया
ज़िंदगी
आ ज़िंदगी पास आ कि तुझपे एक कहानी लिखूँ
तू अपने अन्दाज़ से बोल, मैं अपनी ज़ुबानी लिखूँ
जो ख़ुद को तू दोहराता है बस थोड़ी फेर बदल कर
इसे मैं साज़िश कहूँ या विस्तार की निशानी लिखूँ
सृष्टि
इस वर्तमान से कोई ढंग का अतीत न बने तो
मेरे बच्चे किस बचपन को याद करेंगे?
मानवता की होती हार बदलकर जीत न बने तो
शायद हम अपनी नस्ल को बर्बाद करेंगे
कुछ शब्द और कुछ स्वर मिल संगीत न बने तो
कैसे भला और ख़्वाब हम ईजाद करेंगे?
एक तरफ़ा
राह तकती आँख क्या जाने आस है एक तरफ़ा
घूँट को लालायित है लब, पर प्यास है एक तरफ़ा
महसूस करे एक पल को एक युग तक एक पागल
मत समझाओ उसे कि यह अहसास है एक तरफ़ा
पतझड़
उगना, बढ़ना, मुरझाना,
मिट्टी में मिल जाना,
एक बार और उगना…
फिर इसी चक्र में जीना
बिखरे लत्तों को सीना
उत्साह लेकर दुगना
सपने
कुछ हलचल तो होगी
एक नयी पहल तो होगी
ये चारों ओर चीख़ते रौंदते हैवान
उन्मत्त क़ाफ़िलों में भागदौड़ करते दरिंदे
क्या कभी इनसे ऊबेंगे नहीं लोग?
निस्तब्ध झील में क़ैद खुला आसमान
मृदु प्रवाह से आकार बनाते सफ़ेद परिंदे
क्या कभी इनमें डूबेंगे नहीं लोग?
सादगी बोकर सनसनी ढूँढे तू नादान
ऐसे सपने गर देखेंगी तेरी मदभरी नींदे
फिर क्यों भला चुभेंगे नहीं लोग!
पहचान
फुसफुसा जाती है भीड़ कानों में
कि शामिल हो जाऊँ उन ख़ानों में
औसत जहाँ पहचान दे इंसान को
ठूँस दूँ ख़ुद को ऐसी संस्थानों में?
ठुकरा के अपने वंशानुओं की देन
बिक जाऊँ अब दिखावटी दुकानों में?
फ़रोख़्त की मुट्ठी में लियाक़त-ओ-हुनर
बेहतर है मैं रह जाऊँ बस अनजानों में।
परिंदा
फेंककर करता कोई रहम की नुमाइश
चुगकर है गँवाता कोई अपनी आज़ादी
दाने के इस खेल को समझकर एक साज़िश
बाग़ी ने अपने जान की बाज़ी लगा दी
उड़ उड़के पुरज़ोर वह बुनने लगा ख़्वाहिश
बचपना था
हाय बचपना था, क्या बुरा था
क्यों खीचकर मुझे बड़ा कर दिया
हर टहनी पेड़ की नज़र आती थी
किसने बीच में धुआँ कर दिया
चौखट पे पड़ा था दिल कोई सदियों से
आहट को भी अब मना कर दिया
बेदाग़ यूं ही ढल जाती तो अच्छा था
चढ़ती उम्र ने ये क्या कर दिया
आये दिन
ख्वाबों के घेरे में लिपटता चला जाता हूँ
कोई झेले मुझे कि कटता चला जाता हूँ
बिखर के सारा दिन कुछ न हुआ हासिल
तो रात मैं खुद में सिमटता चला जाता हूँ
कि कोई ख़ुदा तो मेहरबां हो मुझपर कहीं
कई ज़ुबाँ तेरी स्तुति रटता चला जाता हूँ
समय विस्तृत है जगह है बहुत ही तंग मगर
उम्र बढ़ती है और मैं घटता चला जाता हूँ
प्रियतम
वो मेरे गीतों को लिख जाते हैं
सुरों में भी अक्सर दिख जाते हैं
शर्म-ओ-हया जग ने जो थोपी है
उसे अब दुनिया को सिखलाते हैं
कड़कती धूप और ये आँचल तुम्हारा
ये दिल ये नज़रें वही टिक जाते हैं
तराशे आज मिलकर ज़ेवर कोई
यूँ तो पत्थर भी बिक जाते हैं
टेक्नोलॉजी
धक्कामुक्की का दौर है, रहनुमाई कम हो गयी
ग्वाला ख़ुद हमसे पूछे क्यों मलाई कम हो गयी
जो कस के बाँधना चाहा, फीता ही टूट गया
सिरे दो से चार बने पर लम्बाई कम हो गयी
Virtual मुलाक़ातें इतनी होने लगी हैं इधर
रात दिन खलने लगे ऐसी जुदाई कम हो गयी
प्रतिनिधि
तुमने राह चलते मज़ाक़ उड़ाया उस गर्भवती महिला का
अपनी माँ से आँख मिलाने का साहस खो बैठा था मैं
तुमने बस के भीतर छेड़ा उस बेबस लड़की को
तब से मेरी बहन संग लेने से कतराती है मुझे
तुमने उस मासूम को बनाया अपनी हवस का शिकार
एक संदेह घर कर गया तब से मन में बच्ची के मेरे
तुम आख़िर हो कौन जो यूँ मेरी नियति लिख जाते हो?
अब और इजाज़त ना दूँगा तुम्हें
अब वक़्त आ गया है कि तुम्हारा प्रतिनिधि कहलाऊँ मैं
बीज
यूँ दर-ब-दर ठोकरें खाता हुआ आज़ाद है तू
आज़ाद है तू कि ज़िंदगी अभी क़ैद है तुझमें
ज़िंदगी के आज़ाद होते ही तू क़ैद हो जाएगा
फँस के रह जाएगा दो निर्देशांक के बीच
वही तेरे परिचय होंगे
वो अक्षांश, वो देशांतर
बस उनको ही निभाते रहना होगा ज़िंदगी भर
फिर आज़ादी के स्वप्न के कुछ पुलिंदे बाँध लेना
और बिखेर देना कि शायद अगले जन्म में आज़ादी मिले
भँवरा बड़ा लाचार है
फूल तेरा संवरना बेकार है
तेरे गंध से महक कर
रंगों को देख बहक कर
वो छू जाए पास आकर
ऐसी उम्मीद अब ना कर
यहाँ बीच में बाज़ार है
भँवरा बड़ा लाचार है
नशे में धुत है उसका दिल
है उसके पंख भी शिथिल
मचलता मन तो उसका भी
पर उसकी उड़ान पर हावी
ज़माने का व्यापार है
भँवरा बड़ा लाचार है
असमंजस
ना रखा दिल मेरा और ना ही तोड़ी क़समें
क्या इतना लुत्फ़ है बता तेरे असमंजस में
तेरी ये माँग कि मैं दूर रहा करूँ तुझसे
मुश्किल ज़रूर है मगर है तो मेरे बस में
मौसिक़ी ने हमको साथ बिठाया फ़लक पे
उलझाते हो क्यों बेकार सियासती बहस में
मुर्गियां
नज़र दोनों की है मेरी तरफ़
कि वो जानती हैं अन्नदाता हूँ मैं
और हम?
बौखलाए से हैं
समझ ना पाते कि कौन अन्नदाता है हम सबका
अपने-अपने मन के खुदा को बेहतर सिद्ध करने में व्यस्त
क़ुदरत से जैसे कह रहे हैं कि
– हम अक्षम हैं स्वयं की देखभाल करने में
– एक नस्ल की ज़रूरत है अभी मानव से ऊँची
फिर भी…
‘हमें एक दूसरे की क़तई ज़रूरत नहीं’
इस बात को उन्होंने पहले ही भाँप लिया था
और सही वक़्त पे अपना रास्ता नाप लिया था
समझे तो हम भी थे बेशक मगर
चक्रव्यूह में फँसे रहें
इसे निस्वार्थ प्रेम की मिसाल बनाने में बरसों लगे रहें
‘किसी ज़रूरत के लिए हम एक दूसरे पर निर्भर नहीं’
हमसफ़र
मुद्दत के बाद कोई हमसफ़र अपना लगे
इस गाँठ पे किसी की नज़र अब ना लगे
ये तो अपनी जगह ना थी ना कभी होगी
हर शख़्स फिर भी क्यों मगर अपना लगे
गुज़रा है ज़माना जहाँ पर क़दम रखे हुए
क्यों आज भी मुझको वो घर अपना लगे
एक नुक्कड़ ख़रीदने की हैसियत ना सही
महँगाई में ये सारा शहर अपना लगे
औसत दर्जा
किवाड़ खोलती हैं रोज़ ये आँखें सुबह सुबह
सचेत हो जाते हैं सुन्न पड़े कान बेवजह
दिन भर होते रहते हैं औसत दर्जे के दर्शन
सुना करता हूँ हमेशा मामूली तर्क के गर्जन
और हैरान सा मुँह बंद ही रह जाता है
अपना वजूद औसत, मामूली कहलाता है
सुबह की रचना
ज़हन में लिए मुखड़ा फ़्रेश
बाथरूम में किया प्रवेश
जब पहला अंतरा सूझा लू में
सोचा रटकर दिल में बसा लूँ मैं
और शॉवर के नीचे दूसरा मिला
तो गुनगुनाता रहा उसे होंठ हिला
बड़े यत्न से दोनों अंतरों को सम्भाले
हौले-हौले जिस्म से पानी पोंछ डाले
कि टोवेल के स्पर्श से कहीं अंतरे ना उड़ जाएँ
उलझे बालों जैसे दूसरा पहले से ना जुड़ जाए
रखकर इसी बात का ध्यान
जब बाथरूम से किया प्रस्थान
तो भूल चुका था मुखड़ा
अब किसे सुनाऊँ दुखड़ा
सुबह की धुन
सुबह की धुन
सारा दिन ना पीछा छोड़े है
सारी ऊर्जा निचोड़े है
कि उसे पूरा करूँ मैं
मेरी बाँह को मरोड़े है
मैं कोई देवता नहीं
अपने जुगाड़ भी तो थोड़े हैं
और भी काम हैं मेरे
क़लम-ओ-साज़ भी निगोड़े हैं
अब जा भी सुबह की धुन
सारा दिन ना पीछा छोड़े है
मौलिक मैं
जो कैलेंडर की धुन पे दूर जाएं
जिन्हें मशीन दिलाये अहसास तेरे
बुलावे की ज़रूरत उन्हें है शायद
मैं तो यूँ ही हूँ सदा पास तेरे
किसी एक पल को हुआ था हासिल
आज भी गिनता हूँ वही सांस तेरे
नादान
तारीख की ये रस्म निभाना चाहे
माथे पे जो लिखा है मिटाना चाहे
अंदाजा नहीं उसे अपनी गहराई का
नादान सा ये दिल बाहर आना चाहे
ठहराव
सारे थिरकन, सब हलचल तुम रख लो
वक़्त मुझे दे दो, ये पल तुम रख लो
मैं खुश हूँ ठहराव के सन्नाटे में
आज़ादी की उथल पुथल तुम रख लो
कोई एक तो रूककर ज़रा भिगो दे मुझे
बाकी जितने उड़ते बादल तुम रख लो
आगमन
मैं जरूर आऊंगा
गुरूर पर तुम्हारी पकड़ कुछ ढीली हो जाए
तब मैं आऊंगा
तुम्हारे आँगन की मिट्टी थोड़ी गीली हो जाए
तब मैं आऊंगा
मुंह फुलाए बैठी यादें ज़रा चमकीली हो जाए
तब मैं आऊंगा
अवशिष्ट
मिट्टी ने ब्याह लिया, अब डाल से रिश्ता नहीं
डाल की परछाईं आकर छू जाती है कभी कभी
चाहत
इतनी चाहत है तुमसे
कि जिन्हें तुम चाहते हो
उनसे प्यार करने लगा हूँ
और जो तुम्हें नापसंद है
उनसे नफरत करने लगा हूँ
सच, इतनी चाहत है तुमसे
कि मैं खुद से नफरत करने लगा हूँ
भीड़
फिर उठा भीड़ से कहीं चुम्बकों का झोंका
फिर मुझे ज़िन्दगी ने गुमराह होने से रोका
सन्नाटा
दिल पे अब मेरी हुकुमत नहीं
साफ़ उनकी भी तो नीयत नहीं
हाथ फैलाये तन्हाई खड़ी
ज़िन्दगी को मगर फुर्सत नहीं
भीड़ के शोर शराबे तले
सन्नाटे की कुछ कीमत नहीं
ख़त
दीवार से टकराकर लौटे ख़त से पूछता हूँ
ज्यादा चोट तो नहीं लगी?
तुझे हलके से झेला होगा,
प्यार से मोड़ा होगा
उसे देता हूँ तसल्ली…
उम्मीद
चमकेगी खुलके रोशनी उम्मीद है अभी
हर शक़ की धुंद हटेगी उम्मीद है अभी
ज़माने की बड़ी-बड़ी अफ़वाहों के बीच
ज़िन्दा अपनी छोटी सी उम्मीद है अभी
बेरुख़ी को मजबूरी समझ जी रहे हैं हम
ये रुख़ भी बदलेगा कभी उम्मीद है अभी
यादें
कितने नामों में गुम, कितने कामों में गुम
रहे चाहे अपने हज़ार कारनामों में गुम
भूले नहीं वो दिन बसी थी जिसमें तुम
वो साँस रहे गिन फंसी थी जिसमें तुम
अपनापन
कितनी भाषाओं से मैंने तुम्हें अपनाना चाहा
ज़ुबां से तुमने उस चाहत को दफ़नाना चाहा
जब चाहा और कोशिश की, क़रीब आ न सका
परे भी जा तो न पाया मगर जब जाना चाहा
नाराज़गी
आज यादों के निशां क्यों नहीं हैं
दिल में हरकत ज़रा क्यों नहीं है
इसलिये वो ख़फ़ा हो गये हमसे
के हम उनसे ख़फ़ा क्यों नहीं हैं
कहानी
ज़िन्दगी कहानी को पैदा करती है
फिर छोड़ देती है
बेचारी कहानी
अपना रास्ता ख़ुद तय करने में असमर्थ
ना ढंग से जी पाती है
ना मौत को गले लगाती है
बस भटकती फिरती है
कुछ ख़ुशनसीबों को सहारा मिलता है
एक लेखक का
जो उसे सजाकर अंतिम चिता तक पहुँचाता है
मैं ख़ुद को कितनी बदनसीब आवारा कहानियों से घिरा पाता हूँ