चंद लम्हों का मैं जनक और तुम जननी हो चिरकाल की
क्या बिसात मेरी रचनाओं, मेरी तमाम जाँच-पड़ताल की
आओ मिलें नए सिरे से, मिलकर हम कुछ बात नई करें
ना देखें मुड़के अब पीछे, ना छेड़ें बात बीते साल की
निगाहों की दूरी घुल जाए सम्मिलित आँसुओं के स्पर्श से
क्यों ना हम उल्लंघन करें सीमाओं का इस जाल की
ना होगा ज़िक्र मेरे लब पे तुम्हारे किसी भी सलूक का
ना माँगेगा दिल मेरा कैफ़ियत तुम्हारे किसी सवाल की
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