मारके टिंग

मैं परेशान हूँ। रेस्तराँ चेन का धंधा है। अच्छा चल रहा है।ऊँहु… ‘है’ नहीं ‘था’। जब से ये कल्पित आया है…

वैसे कल्पित से मुझे कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है। दिल का हीरा है वह। उसका पिता – आदर्श – एक ज़माने में मेरा सहपाठी हुआ करता था। बड़ी इज़्ज़त करता था मैं आदर्श की। बड़ा ही नेक बंदा था। बरसों बाद जब व्हाट्सऐप ग्रूप के माध्यम से आदर्श से फिर बातचीत होती थी तो पुराने दिन लौट आते थे। फिर एक दिन पता चला कि आदर्श अचानक इस दुनिया से चल बसा। बहुत सूनापन महसूस किया था तब। धीरे धीरे तमाम व्यस्तताओं में उलझ व्हाट्सऐप ग्रूप भी कब छोड़ दिया था, पता ही ना चला।

आदर्श के देहांत के क़रीब दो साल बाद कल्पित का एक ईमेल आया था। उसे काम की तलाश थी। जो बात मुझे भली लगी थी वो यह कि उस ईमेल में किसी तरह का कोई दबाव नहीं था। ना उसमें अपने बुरे दिन का बढ़ा-चढ़ाकर बखान था और ना ही जज़्बाती ब्लैक्मेल। उलटे उसने मेरे सहायता न कर पाने की स्थिति में भी बुरा ना मानने की बात कही थी। मुझे अच्छा लगा था। आदर्श की छवि एक बार फिर उभरकर सामने आ गयी थी। मैंने बातचीत आगे बढ़ाई।

ग़नीमत से वह उसी शहर में रहता था जहाँ मुझे अपने चेन की रेस्तराँ खोलनी थी। सो मैंने काफ़ी समझा-बुझाकर उसे ये ज़िम्मेदारी सौंपी। रेस्तराँ बिज़्नेस के कुछ नुस्ख़े बताएँ और एक विश्वसनीय शेफ़ उसे दिया।

शुरुआत बड़ी अच्छी रही। एक बार उसके शहर दौरे पर गया था। रेस्तराँ की तरक़्क़ी देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। बाहर निकलते समय मेरी आँख काँच के दरवाज़े पर टिक गयी। अंदर की ओर से दरवाज़े पर PUSH लिखा हुआ था। कल्पित ने दरवाज़े को हल्के से धकेला और अपने बायें हाथ से मेरी ओर कृतज्ञता भरे भाव से इशारा किया। बाहर निकल मैंने नज़र घुमाई और देखा बाहर से उसी दरवाज़े पर PULL लिखा हुआ था। मैंने कल्पित के काँधे पर हाथ रखा। उसे दरवाज़े पर लिखे शब्द दिखाए। वह समझा नहीं।

मैंने कहा, “देखो बुरा मत मानना। ये वैसे कोई बड़ी बात नहीं। पर बात एटिट्यूड की होती है। अगर आप कस्टमर चाहते हो तो आप उनका अंदर आना आसान करोगे और बाहर निकलना मुश्किल। आई बात समझ में? अगली बार मुझे यह सही नज़र आना चाहिए।”

उसे गम्भीर होते देख मैं मुस्कुरा दिया।

आठ महीने बाद मैं दूसरी बार वहाँ पहुँचा। गरमी का मौसम था। हर दुकान की तरह उस रेस्तराँ में भी कम लोग मौजूद थे। रेस्तराँ में क़दम रखते ही बाहरी दरवाज़े पर PUSH लिखा देखकर मुझे ख़ुशी हुई। मैंने उससे हालचाल पूछा। उसने बताया कि उसके पुराने ग्राहक अब भी आते हैं, पर नए ग्राहक कुछ ख़ास नहीं आ रहे हैं। मैंने उसे कुछ स्ट्रटीजिक क़दम उठाने को कहा।

मैंने कहा, “तुम्हें क्या करना है, तुम ख़ुद सोच कर निकालो। पढ़े लिखे हो, जवान हो। इस एज की डिमांड तुम्हीं को बेहतर पता है। मैं प्रोग्रेस मॉनिटर करूँगा।”

सुनते ही उसने बड़े जोश से बोलना शुरू किया, “सर मैं भी सोच रहा था कि कुछ पहल करना ज़रूरी है। दरअसल मैंने कुछ सोच भी रखा है। अगर बुरा न माने तो अपना आइडिया बताऊँ? कोई ज़रूरी नहीं कि आपको अच्छा लगे। आप सुन लीजिए। फिर आप कुछ और चाहे तो ठीक है।”

“अच्छा बोलो।”

“सर पाँच इन्द्रिय जो है हमारे? फ़ाइव सेन्सेज़, इनमें स्वाद, गंध और दृष्टि को तो हम तृप्त करते ही हैं…”

मैं मन ही मन उसकी शुद्ध हिंदी पर हँस रहा था। शायद उसने मेरे कौतुक का कारण भाँप लिया था। वह बोले जा रहा था, “हमारे डिशेज़ की क्वालिटी और प्रेज़ेंटेशन हमेशा टॉप क्लास होते हैं। मैं सोच रहा था कि जो दो और सेन्सेज़ हैं – टच और हियरिंग – इनको लेकर कुछ किया जाय। शायद एक डिस्टिंक्ट इमेज बन जाए अपने रेस्टोरेंट की।”

उसका ‘रेस्टोरेंट’ कहना मुझे ज़रा चुभ गया। मैंने कहा, “बहुत बहकी बहकी बातें करते हो यार। कुछ स्पेसिफ़िक प्लान बताओ। आजकल मार्केटिंग के नए नए टेक्नीक निकले हैं। चाहो तो किसी आइ टी एक्स्पर्ट को साथ ले लो।”

“सर एक बार ट्राई करते है। मुझे भरोसा है कुछ अच्छा होगा।”

“ठीक है, अगले हफ़्ते तक मुझे बताओ कि इग्ज़ैक्ट्ली क्या सोचा है।”

ठीक सातवें दिन उसका फ़ोन आया। हमेशा की तरह पंक्चुअल था बंदा।

“सर वो जो सेन्सेज़ की बात कर रहा था मैं। श्रवण और स्पर्श… आइ मीन हियरिंग और टच। हियरिंग तो सर मेलोडीयस गाने सुनाकर सैटिस्फ़ाई कर सकते है। म्यूज़िक तो बहुत सारे रेस्टोरेंट में चलता है। पर अपने यहाँ एकदम चुने हुए मोस्ट मेलोडीयस गाने ही बजेंगे। मैं ख़ुद चुनूँगा। धीरे धीरे लोग समझेंगे सॉफ़्ट मेलोडी के साथ ज़ायक़ेदार खाने का आनंद। ख़ैर ये तो एक प्लान है। पर इससे ज़बरदस्त प्लान है टच वाला। हमारे वाशरूम में सेन्सरी टैप्स लगाएँगे ताकि कस्टमर को नल छूना ना पड़े। और हर नाइफ़ और फ़ोर्क में सॉफ़्ट ग्रिप लगाएँगे। मतलब टोटल एक्स्पिरीयन्स सर। रेस्टोरेंट में क़दम रखते ही पकवान की सुगंध और मधुर गीतों से उनका स्वागत होगा। फिर जब विसुअली अपीलिंग डिशेज़ को सॉफ़्ट टच के सहारे मुँह में ले जाएँगे तो उसका स्वाद बाक़ी सेन्सेज़ के साथ मिलकर ज़बरदस्त सेन्सेशन पैदा करेगा दिमाग़ में। सारे बाहर आकर इसकी चर्चा करेंगे। तब मार्केट बढ़ेगा।”

“ख़र्चा कितना लगेगा?” मैंने निर्विकार भाव से पूछा।

“सर कुछ पाँच लाख वन टाइम पड़ेगा। और ऑपरेटिंग में समझिए १० पर्सेंट ज़्यादा। पर सर लॉंग टर्म में बहुत फ़ायदेमंद रहेगा।”

“यार पाँच लाख में तो कितने टारगेटेड ऐड बन जाते। फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, वग़ैरा। इतना सब करने की क्या ज़रूरत है?”

“सर लॉंग टर्म में सब्सटांस ही मैटर करता है।वो सब कुछ दिन के लिए ठीक हैं।”

थोड़ी झिकझिक के बाद मैंने कुछ कम ख़र्च की मंज़ूरी दे दी थी।

*****

आज फ़ायनैन्शल अड्वाइज़र के साथ अपने बिज़्नेस का क्वॉर्टर्ली रिपोर्ट देखकर मन भारी हो गया। कहीं से कोई अच्छी ख़बर नहीं है। कल्पित का रेस्तराँ तो डूबने के कगार पर था। और उसी में सबसे ज़्यादा इन्वेस्टमेंट हुआ था। दूसरे दिन ही मैं वहाँ पहुँचा।

“अगर कुछ बेचना है तो इंसानों से उम्मीद मत रखो। आदमी लोग कुछ ख़रीदते नहीं। ख़रीदते वो हैं जिनके सेन्सेज़ नहीं होते। सीधे दिमाग़ पर जिनके असर होता है। अगर तुम्हारे पास बस इंसान आते हैं तो पहले उन सब को मारके टिंग बनाओ। उनके सारे सेन्सेज़? वो तुम क्या कहते हो, इन्द्रिय… हाँ उनके इन्द्रिय निष्क्रिय कर दो। ख़त्म कर दो उनके महसूस करने की ताक़त। फिर बेचो जो बेचना है। बिक जाएगा। मेरी गैरंटी है। वो क्या कहते है ना ‘कस्टमर इस किंग’? सब बकवास है। टिंग इस किंग। हाँ, सबको मारके टिंग बनाओ। और बंद करो तुम्हारी बकवास। कोई सेन्सरी सैटिस्फ़ैक्शन नहीं। उन्हें डोपामिन दो इंटर्नेट के ज़रिए, मोबाइल के ज़रिए। तुम सेन्सेज़ की बात करते हो? पहले अपने आँख-कान खोलो और देखो आसपास क्या हो रहा है। देखो इंफ़्लुएंसर लोगों को, नेताओं को, बड़े बड़े बिज़्नेस को। सब सपने बेच रहे हैं सपने। और सपने दिखाने के लिए पहले लोगों को सुलाना ज़रूरी है।”

एक साँस में मैं सब कह गया। और ग़ुस्से से उफ़नते हुए बाहर निकल गया। बाहर के दरवाज़े पर भीतर से PULL लिखा देखकर इस बार मैं खीज उठा। दरवाज़े को इतनी ज़ोर से खींचा कि कुछ देर तक वह पेंडुलम की तरह हिलता रहा।

*****

एक साल पहले की बात थी यह। आज वह रेस्तराँ शान है मेरे चेन की। सारे शहर में बड़ी चर्चा है। बस अफ़सोस इस बात का है कि कल्पित अब वहाँ नहीं है। मेरे उस लेक्चर के दूसरे दिन ही उसने इस्तीफ़ा दे दिया था। उसके बताए रास्ते पर चलकर शेफ़ ने बिज़्नेस जारी रखा। कितने घटिए तरीक़े से पेश आया था मैं उस दिन! और वो सलाह – इंसान को मारके टिंग बनाओ! भला ऐसी शिक्षा भी कोई अपने बच्चों को देता है? क्या सोचेंगे आजकल के नौजवान हम बड़ों के बारे में? वह मुझमें अपने पिता आदर्श को ढूँढता था। और मैं?

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